पिछले दिनों हिन्दी-दिवस का शोर मचा हुआ था और मैने कहीं पढा कि एक समय था जब यू.पी. में बी.ए. के पहले साल में ही सत्तर प्रतिशत बच्चे जरनल इंग्लिश में फेल हो जाया करते थे | भला हो यू. पी. सरकार और आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति का जिन्होने हिन्दी विषय का विकल्प देकर ग्रामीण परिवेश के बच्चों कोअंग्रेजी के आतंक से मुक्ति दिलाई | परन्तु आज के समय में, जब हर चीज का मापदंड बाजार हो गया है, हिन्दी भी इससे अछूती ना रह पाई |
आज जब राजनीति, धर्म और यहाँ तक की इंसानियत भी बाजारू चीज हो चुकी है, ऐसे में अंग्रेजी मानसिकता ने हिन्दी के बाजार को खत्म कर दिया | इसी मानसिकता ने हिन्दी को ‘हिंगलिश’ में बदला और जिन 70% बच्चों ने कभी अंग्रेजी के खौफ से हिन्दी का हाथ थामा था, आज वही अंग्रेजी का गुणगान करते नजर आते हैं | स्नातक का विद्यार्थी हूँ , इसीलिए मैने कॉलेज में देखा है कि ‘लिटरेचर’ को ‘लिटलेचर’ बोलने वाले ये लोग डबल इंग्लिश लेते हैं स्नातक में | हिन्दी के छात्रों को कितनी हिकारत भरी नजर से देखते हैं, इसका भी मैं साक्षी रह चुका हूँ। कुछ अंग्रेज़ीदा लोगों ने सिविल सर्विस में भी अंग्रेजी को हम पर थोपना चाहा पर भला हो हमारे नेताओं का , जिन्होने अपना नकारापन छोड़ कर एकजुट होकर इसका विरोध किया और हम अंग्रेजी के फुल-टाइम गुलाम होने से बच गये। आजकल लोग मशहूर होने के लिए (हिंदी भाषियों के बीच में भी ?) हिंदी के बजाये अंग्रेज़ी में लिखने को तरजीह देते हैं। इन लोगों को ‘शिव’ को ‘शिवा’, ‘रुद्र’ को ‘रुद्रा’, ‘सूर (सूरदास)’ को ‘सूरा’ और विश्वविख्यात ‘योग’ को ‘योगा’ बोलना ज्यादा रसिक और आनंदमयी लगता है। लेकिन इन अक्ल के ठेकेदारों को कौन बताये कि न जाने कितने विश्वविख्खयात लेखकों ने अपनी शुरूआती कालजयी रचनायें अपनी भाषायों में लिखी। वो तो बाद में अंग्रेजों ने अपने पढने हेतु उनका अनुवाद किया।
वैसे कोई किसी भी भाषा में लिखे, ये उसकी पसंद पर निर्भर करता है पर इसका मतलब ये भी नहीं की आप हिंदी को हाशिये पर धकेल दें। मैने भी अपने ब्लॉग पर तत्कालीन मुद्दों पर हिंदी (जैसे - सुपरहीरोज़ का धरती से पलायन, शिक्षा-प्रणाली और यूपी बोर्ड, बुरा ना मानो होली है, अलविदा 2012 ), हिंगलिश (जैसे - Irado Ko Samjhey, Benefits And Lose Of IPL, ) और अंग्रेजी (जैसे – The Last Chance-1, The Last Chance-2, Why Indian people need a Malala Yousafzai ?,An Unfulfilled Dream ) में लेख लिखें और ईमानदारी से कहूँ तो मेरे अंग्रेजी लेखों से ज्यादा हिन्दी लेख ज्यादा प्रभावी दिखते हैं। पर आश्चर्यजनक रुप से अंग्रेजी लेखों को हिंदी लेखों की अपेक्षा ज्यादा पाठक मिले। और उससे ज्यादा आश्चर्य की बात ये है कि हिन्दी-पट्टी के लोगों ने अंग्रेजी को हिंदी पर तरजीह दी।
वैसे न तो मैं कोई विशेषज्ञ हूँ और न ही आँकड़ों का जादूगर जैसा कि अपना योजना-आयोग है , पर अगर हम न चेते तो वो दिन भी दूर नहीं जब ग्रामीण अंचलों में भी ये भाषा औरंगज़ेब की तरह अपनी आखिरी साँसों के साथ अपनी गरिमा खोती जायेगी और चुपचाप खड़े होकर देखने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचेगा।
[यह लेख Jagran Junction के Hindi Diwas Contest: ब्लॉग शिरोमणि प्रतियोगिता में प्रविष्टि है।]
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